कैसे खेला था इंडिया ने अपना पहला टेस्ट

Updated: Mon, Feb 09 2015 04:45 IST

इंडिया ने अपना पहला टेस्ट मैच 25 जून 1932 को लॉर्ड्स के मैदान पर इंग्लैंड के खिलाफ खेला था। लेकिन शायद कम ही लोगों को पता होगा की इस पहले टेस्ट मैच की जमीन किस तरह तैयार की गई थी और इस टेस्ट मैच से पहले क्या क्या हुआ था। चलिए आज हम आपको बताते हैं कि इंडिया में पहला टेस्ट मैच खेले जाने से पहले क्या क्या हुआ था।

जब जब भारतीय टीम के इंग्लैंड दौरे की चर्चा होती है तब तब 1932 के भारतीय टीम के पहले इंग्लैंड दौरे की याद ताजा हो जाती है। कई कारणों से यह दौरा काफी चर्चित हुआ था। पहले विदेशी दौरे पर गई इस भारतीय टीम में कई राजा महाराज शामिल थे जो जरा-जरा सी बीत पर भड़क उठते थे। नतीजा यह हुआ कि भारतीय टीम का यह इंग्लैंड दौरा शायद सारे क्रिकेट इतिहास में किसी भी टीम  सबसे विवादास्पद विदेशी दौरा बन गया था।

 

इंडिया की टीम इंग्लैंड के दौरे पर जा रही है। इंडिया ने अपना टेस्ट जीवन भी इंग्लैंड के खिलाफ 1932 में शुरू किया था औऱ जब भी इंडिया की टीम इंग्लैंड जाती है तो उसे पहला टेस्ट याद आ जाना स्वभाविक है। क्रिकेट के इतिहास की किताबें कहती है इंडिया ने अपना पहला टेस्ट मैच इंग्लैंड के खिलाफ 1932 में ल़ॉर्ड्स के मैदान पर सी के नायडू की कप्तानी में खेला था।

इस टेस्ट मैच के खेले जाने से पहले भारतीय क्रिकेट में जो उथल पुथल हुई थी अगर उसे बारीकी से देखा जाए तो इंडिया की टीम भाग्यशाली थी कि उसने वह टेस्ट मैच खेल लिया अन्यथा उस समय हालत और अधिकारियों के बीच आपसी प्रतिद्दंदिता ने टेस्ट मैच के कार्यक्रम को रद्द करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

1926-27 में आर्थर गिलिगन की एमसीसी की टीम की भारत यात्रा के बाद से ही लगने लगा था कि भारत को टेस्ट मैच खेलने का दर्जा जल्द ही मिल सकता है। अब जरूरत इस बात की थी कि भारत में कोई क्रिकेट बोर्ड बने और भारत में क्रिकेट को चलाने की जिम्मेदारी संभाले। 

अब तक इंडिया में जो क्रिकेट हुआ था वह राजा महाराजाओं के कारण ही हुई थी और राजा महाराजा अपने ढंग से क्रिकेट का आयोजन कर रहे थे। बहरहाल क्रिकेट बोर्ड बनाने में ढील नहीं दिखाई गई औऱ क्रिकेट बोर्ड बन गया पर सवाल इस बात का था कि उस क्रिकेट बोर्ड के पास अधिकार कितना है। बोर्ड के पहले अध्यक्ष ग्रांट गोवन थे और पहले सचिव डि. मेलो थे।  एक खिलाड़ी के रूप में क्रिकेट से इन दोनों का कोई नाता नहीं था। पिछले दरवाजे से दिलीप सिंह जी को भारतीय क्रिकेट की जिम्मेदारी संभालने के लिए आगे ले की कोशिश की जा रही थी लेकिन दिलीप सिंह जी ज्यादा समय बीमार रह रहे थे। ।

उन्हीं सालों में विजयानगरम के विजी अचानक सामनें आए। वह खेल भी लेते थे औऱ दूसरी बात उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने बहुत जल्द ही भारतीय क्रिकेट बोर्ड पर हावी होना शुरू कर दिया था। उधर महाराजा पटियाला अपने पैसे के दम पर काफी हाफी थे। 1929 में बोर्ड की बैठक के दौरान  अध्यक्ष ग्रांड ने घोषणा की कि 1932 की इंग्लैंड यात्रा के लिए अनुमानित 2000 रूपए का खर्चा महाराजा पटियाला ने देने की बात मान ली है। । विजी भी वहीं थे औऱ उन्होंन फौरन कहा कि वे इस यात्रा के लिए 10000 रूपए देंगे। बोर्ड अब बड़ी मुश्किलों में पड़ गया और यहीं से झगड़ों का सिलसिला शुरू हुआ। 

बोर्ड ने महाराजा पटियाला के प्रस्ताव को मना नहीं किया और नहीं वे विजी को इंकार कर सके। विजी खुद एक खिलाड़ी थे इसलिए उन्होंने अपनी एक अच्छी टीम भी जुटाई और साथ ही वे इंग्लैंड के जैक हॉब्स और हरबर्ट सटक्लिफ जैसे महान खिलाड़ियों को भारत बुलाने में सफल रहे। इस तरह से विजी धीरे धीरे भारतीय क्रिकेट पर हावी होते गए और 1931 में जब मद्रास में इंडियन-यूरोपियन्स वार्षिक मैच हुआ तो भारतीय टीम का कप्तान विजी को ही बना दिया गया। 

इसी से ये अंदाजा लगा कि जब 1932 में टीम इंग्लैंड के दौरे पर जाएगी तो टीम के कप्तान विजी होंगे। 

उन्हीं दिनो में स्वतंत्रता आंदोलन ने बड़ा जोर पकड़ लिया था और पूरे देश में उथल पुथल मच गई।  महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आवाज लगाई कि अगर भारतीय टीम में अग्रेंज खिलाड़ी को शामिल किया गया तो कोई हिंदु उस टीम में न खेले। अब आप अंदाजा लगा ही सकते हैं कि ऐसे हालत में सिर्फ यह यात्रा रद्द होने के बारे में ही सोचा गया होगा। 

अक्टूबर 1931 में लॉर्ड विलिंगडन के रूप में नए वायसराय भारत आए। वे क्रिकेट के बहुत शौकीन थे । वह पहले बम्बई के गर्वनर रह चुके थे और तब उन्होंने मुंबई में अच्छे क्रिकेट का आयोजन किया था। लॉर्ड विलिंगडन ने राजनीतिक मामलों को  देखने के साथ साथ भारतीय क्रिकेट में भी रूचि दिखाई औऱ उन्होंन ऐसी हर संभव कोशिश की 1932 में भारतीय टीम का इंग्लैंड दौरा रद्द न हो। उनसे दोस्ती करने के मामले में विजी ने महाराजा पटियाला को पीछे छोड़ दिया था। 

सितंबर 1931 में लॉर्ड विलिंगडन के क्रिकेट की बैठक में शामिल होने से पहले विजी ने बोर्ड को अपने पास से 50000 रूपए देने की घोषणा की जिसमें से 40000 रूप इंडिया के इंग्लैंड दौरे के खर्चे के लिए थे। उनके इस प्रस्ताव के बाद मान लिया गया कि उन्हें कोई पीछे नहीं छोड़ सकता। महाराजा पटियाला भी खेलों के अच्छे शौकीन थे लेकिन बार बार उन पर यह आऱोप लगा कि वे केवल औरतों में मस्त रहते हैं औऱ क्रिकेट में पैसा देने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। बोर्ड ने इसके बावजूद भी विजी के प्रस्ताव को मानने की स्पष्ट घोषणा नहीं की। 

अब टीम  चुनने का काम शुरू हुआ और यह कोई आसान काम नहीं था। लॉर्ड विलिंगडन इस बात के लिए सहमत थे कि भारतीय टीम में किसी अंग्रेज को ना चुना जाए। इसलिए ज्यादा तमाशा नहीं हुआ और पूरे भारत से 50 से अधिक खिलाड़ियों को ट्रायल्स के लिए पटियाला बुलाया गया। भारतीय क्रिकेट बोर्ड द्वारा तीन चयनकर्ता बुलाए गए थे औऱ वे पटियाला में मौजूद थे पर हर किसी की ध्यान की ट्रायल्स पटियाला में हो रहे हैं और महाराजा पटियाला टीम के चयन में अपना रौब जरूर दिखाएंगे। वास्तव में महाराजा पटियाला रोज ट्रायल्स देखने आते थे और वह जिस खिलाड़ी को अच्छे खेल के लिए बधाई देते थे तो ये मान लिया जाता था कि वह टीम में चुन लिया गया है। 

इन खिलाड़ियो की एक छोटी सी लिस्ट बनाई गई और उन्हें अगले ट्रायल्स के लिए लाहौर भेजा गया। आखिर में टीम घोषित हुई और आपको यह जानकर हैरानी होगी की महाराजा टीम के कप्तान थे और लिम्बडी के प्रिंस घनश्यामजी उप कप्तान थे औऱ विजी सहायक उप कप्तान थे। शायद क्रिकेट के इतिहास में यह पहला मौका था जब एक टीम के 3 कप्तान घोषित हुए थे। टीम को चुनने वालों ने हर धर्म का प्रतिनिधित्व  दिया। टीम में 7 हिन्दु, 4 मुस्लिम, 4 पारसी, और 3 सिख थे। 

जैसा कि उम्मीद थी इस चयन  के फौरन बाद भारतीय क्रिकेट पर हावी लोगों के बीच उठापटक शुरू हो गई और कप्तानों के नाम पर तो सबसे ज्यादा हंगामा हुआ।  इसी लड़ाई का नतीजा था कि विजी ने अपने आपको अपमानित मानकर इंग्लैंड जाने से इंकार कर दिया था। उनकी जगह बड़े अच्छे खिलाड़ी जहांगीर खान को टीम में ले लिया गया। इसके बाद महाराजा पटियाला ने भी टीम से अपना नाम वापस लिया । जब उनकी जगह किसी अच्छे खिलाड़ी को टीम में शामिल नहीं किया गया बल्कि ना जाने कहां से महाराजा ऑफ पोरबंदर को सामनें लाकर उन्हें टीम का कप्तान बना दिया गया। महाराजा ऑफ पोरबंदर तथा प्रिंस ऑफ लिम्बडी आपस में रिश्तेदार थे लेकिन इन दोनों का ही क्रिकेट के खेले से एक खिलाड़ी के रूप में उतना ही नाता था जितना रि आज बोरिस बेकर को क्रिकेट के खेल था। 

इस टीम में सी के नाय़डू नाम का एक खिलाड़ी भा था और उसे उस समय के भारत के हिंदु पत्रकार देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज मान रहे थे। अग्रेंजों ने भी सी.के नायडू की बड़ी तारीफ की थी। अगर योग्यता के हिसाब से कप्तान बनाया जाना था तो ये सी के नायडू को ही मिलना चाहिए था। 

जब भारतीय टीम इंग्लैंड में खेल रही थी तो रोज इस तरह की अफवाह सामनें आती थी कि दिलीप सिंह जी को या विजी को टीम में शामिल कर लिया जाएगा। उधर टीम के खिलाड़ी भी आपस में एक दूसरे से लगड़ते झगड़ते रहे क्योंकि ये खिलाड़ी अपने अपने गॉडफादर से संबंधित थे और हर रोज कोई न कोई हंगामा हो रहा था। जब महाराजाओं के असफल होने के बाद एक मैच के लिए सी के नायडू को कप्तान बनाया गया तो उस समय भी बगावत हुई थी और उस समय भी कई खिलाड़ियों ने सी के नायडू की कप्तानी में खेलने से इंकार कर दिया था। 

इंग्लैंड के भूतपूर्व कप्तान माइक ब्रेयरली ने अपने एक लेख में कप्तानों की चर्चा करते हुए लिखा था कि उसने आज तक महाराजा ऑफ पोरबंदर जैसे घटिया कप्तान के बारे मे न तो कहीं पढ़ा है और न हीं कहीं सुना है। महाराजा ऑफ पोरबंदर ने इंग्लैंड के इस दौरे मे कुल 6 मैच खेले और सभी में उन्होंने निचले क्रम में बल्लेबाजी की। उन्होंने गेंदबाजी भी नहीं कि। उनका रिकॉर्ड देखिए 6 पारियों नें 6 रन।

इंग्लैंड के अखबारों ने उनका इतना मजाक उड़ा था कि आखिरकार उन्होंने खुद ही कप्तान का पद छोड़ दिया। प्रिंस ऑफ लिम्बडी ने भी यह महसूस कर लिया था कि कप्तान करना उनकी बस की बात नहीं है। जिन तीन पारियों नें वह खेले थे उनमें उनका स्कोर 0,0 और 2 था। 

लिम्बड़ी के बारे में इंग्लैंड के अखबारों में लिखा गया की उन्होंने जितने रन बनाए हैं उससे कहीं ज्यादा तो रोल्स रॉयसस कारें उनके पास हैं । लिम्बडी ने पीठ में चोट का बहाना बनाया और ऐसे में लॉर्ड्स के पहले टेस्ट मैच के लिए सी के नायडू की कप्तानी का रास्ता साफ हुआ। 

भारत के लिए सी.के नायडू पहले टेस्ट कप्तन बने । हालांकि अपने समय में वे खिलाड़ियों के बीच कुछ ज्यादा लोकप्रिय साबित नहीं हुए पर कम से कम किसी ने ये नहीं कहा कि वह कप्तान बनने योग्य नहीं हैं।


(सौजन्य : क्रिकेट भारती)

 

 

 

 

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