अनोखा क्रिकेटर जिसने पिच के करीब 'कुत्ता' ढूंढने के लिए मैच रोक दिया था, धोनी को भी इस दिग्गज ने ही ढूंढा था 

Updated: Wed, Jan 25 2023 13:40 IST
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प्रकाश पोद्दार (Prakash Poddar) कौन थे? इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं मिलेगा। भारतीय क्रिकेट में वे एक कम परिचित पर ख़ास नाम हैं। बंगाल, राजस्थान, ईस्ट जोन और सेंट्रल जोनल के लिए खेले। बल्लेबाज थे और रिकॉर्ड- 74 फर्स्ट क्लास मैच में 3868 रन 38.29 औसत से, 11 शतक। बंगाल के लिए पंकज रॉय की कप्तानी में डेब्यू (1960 में असम के विरुद्ध) पर 141 रन बनाए थे।

जनवरी 1964 में, बोर्ड प्रेसिडेंट इलेवन के लिए माइक स्मिथ की मेहमान एमसीसी के विरुद्ध 100* बनाए- इससे घरेलू सीरीज के लिए टेस्ट टीम आ गए।  

पहले टेस्ट में 12 वें खिलाड़ी थे और दुर्भाग्य ये कि टीम के खिलाड़ी बदलते रहे पर वे सभी 5 टेस्ट में नंबर 12 ही रहे। ऐसा रिकॉर्ड शायद पूरी दुनिया में किसी का नहीं। इंडिया कलर्स नसीब हुए भी तो उस श्रीलंका (तब सीलोन) के विरुद्ध जो टेस्ट टीम नहीं था और ये अनऑफिशियल 'टेस्ट' ही गिने गए। इन प्रकाश पोद्दार का हैदराबाद में 82 साल की उम्र में निधन हो गया। 

उनका दूसरा परिचय ज्यादा वजनदार है। क्रिकेट करियर के बाद, बोर्ड के लिए, ईस्ट ज़ोन के टेलेंट रिसोर्स डेवलपमेंट ऑफिसर (TRDO) बन गए और धोनी जैसी टेलेंट को उन्होंने ढूंढा था। वे टीआरडीडब्ल्यू स्कीम के लिए, जमशेदपुर में एक अंडर-19 मैच देख रहे थे तो धोनी के छक्कों से ग्राउंड के बाहर गिरती गेंद देखकर इतने प्रभावित हुए और सीधे खबर दी स्कीम के इंचार्ज दिलीप वेंगसरकर को। इस स्कीम में अंडर 19 क्रिकेटर नहीं लेते थे पर धोनी की टेलेंट पर, पोद्दार की सिफारिश मान कर, वेंगसरकर अड़ गए और जगमोहन डालमिया को मना लिया। धोनी क्या कर गए भारत की क्रिकेट के लिए- ये सब जानते हैं। ऐसी टेलेंट को ढूंढने के बावजूद वे सिर्फ एक साल टीआरडीओ रहे। 

अब आते हैं उनके तीसरे परिचय पर जो इनकी अलग पहचान बनाता है। बंगाल में वे लुलु-दा के नाम से मशहूर थे- उस अमीर मारवाड़ी घर के बेटे जहां क्रिकेट को कोई पसंद नहीं करता था। वे खुद कहते थे- मारवाड़ी को हर क़ाम में पैसा चाहिए और उनके जमाने में क्रिकेट में पैसा नहीं था। वे इसीलिए खुद को ऐसा पहला मारवाड़ी कहते थे जो पूरी मेहनत से क्रिकेट खेला। ऐसे दीवाने थे क्रिकेट के, कि जब एक बार क्रिकेट को कतई पसंद न करने वाले पिता ने धमकी दी कि क्रिकेट या घर में से एक चुन लो तो उन्होंने घर और पिता की संपत्ति को छोड़ दिया और क्रिकेट खेलना जारी रखा। अपना बिजनेस किया, कामयाब हुए और खूब पैसा कमाया। 

पैसा और अमीरी उनके मिजाज में झलकते थे पर ये सब दिखाई नहीं देता था। अपने पैसे से कोई भी अच्छी ब्रांड कार खरीद सकते थे लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करते थे। बढ़िया कपडे पहन सकते थे लेकिन आम तौर पर सफेद पजामा और आधी बाजू की सफेद सूती शर्ट पहनते थे- साथ में छाता/मफलर/तौलिया मौसम के हिसाब से। लोगों ने उनके ड्रेस सेंस का मजाक उड़ाया पर उन पर कोई असर नहीं हुआ।

मिजाज में थी अमीरी और इसीलिए जो सही लगता था वह करते थे और टीम में जगह की कभी चिंता नहीं की। अगर ज़रा भी डिप्लोमेटिक होते तो टेस्ट खेल गए होते। बंगाल क्रिकेट में झगड़ा हुआ तो राजस्थान चले गए। उनके साथ, राजस्थान ने 3 साल में 2 रणजी फाइनल खेले। राजस्थान में अनबन हुई तो वापस बंगाल आ गए! नशे में, एक बार कहा था- मारवाड़ी मेरे जैसे बातूनी, नहीं होते- मुझे लगता है कि बंगाल ने मुझे बिगाड़ दिया है!

एक किस्सा बड़ा मजेदार है। एक दलीप ट्रॉफी मैच में जब वेस्ट जोन के फील्डर स्लेजिंग कर उनकी एकाग्रता खराब कर रहे थे और अंपायर चुचाप तमाशा देख रहे थे तो उन्होंने अचानक बल्लेबाजी रोक दी। अंपायर से जोर से पूछा- 'ये भौं-भौं कौन कर रहा है? कोई कुत्ता छिपा है यहां?' ये कहते हुए ऐसे घूमने लगे जैसे कुत्ते को ढूंढ रहे हों और साथ में जोर-जोर से चिल्लाते हुए बोल रहे थे-'मैं कुत्ते से बड़ा डरता हूं !' खेल करीब दो मिनट तक रोकना पड़ा! फील्डर समझ गए कि किस से पाला पड़ा है। ये थी उस जमाने की 'रिवर्स स्लेजिंग'!

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कमाल के हिम्मती थे। जब हैदराबाद के लिए, वेस्टइंडीज से आए तेज गेंदबाज रे गिलक्रिस्ट खेलते थे तो रणजी मैचों में उन्हें खेलने में सब घबराते थे। प्रकाश कभी नहीं घबराए।जब बीसीसीआई से पहला पेंशन चेक मिला तो चेक पिता की फोटो के पास ले गए और उन्हें दिखाया। एक और मजेदार बात- हर साल पूजा मंडप में मां दुर्गा के चरणों में अपना क्रिकेट बैट रखकर आशीर्वाद मांगते थे। ऐसे लोगों ने भारत में क्रिकेट को आगे बढ़ाया था।

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