भारत के 100 साल के जीवित क्रिकेटर रुस्तम सोराबजी कूपर,जो पेंटांगुलर्स और रणजी ट्रॉफी दोनों खेले
100 साल जीने वाले, भारतीय फर्स्ट क्लास क्रिकेटर की लिस्ट में प्रो. डीबी देवधर, रघुनाथ चांदोरकर एवं वसंत रायजी के साथ, अब रुस्तम सोराबजी कूपर (Rustom Sorabji Cooper) का नाम भी जुड़ गया है। उनका जन्म 14 दिसंबर 1922 को
100 साल जीने वाले, भारतीय फर्स्ट क्लास क्रिकेटर की लिस्ट में प्रो. डीबी देवधर, रघुनाथ चांदोरकर एवं वसंत रायजी के साथ, अब रुस्तम सोराबजी कूपर (Rustom Sorabji Cooper) का नाम भी जुड़ गया है। उनका जन्म 14 दिसंबर 1922 को हुआ था। इंटरनेशनल क्रिकेट खेले नहीं- इसलिए नाम चर्चा में ज्यादा नहीं रहा। फर्स्ट क्लास रिकॉर्ड : 22 मैच, 1205 रन, 3 शतक, 52.39 औसत। इससे आगे देखें तो उनके नाम के साथ कुछ बड़ी ख़ास बातें जुड़ी हैं : काउंटी क्रिकेट खेलने वाले पहले भारतीय थे (मिडिलसेक्स के लिए), लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स गए पढ़ने के लिए और बाद में बेरिस्टर बने, मिडिलसेक्स के सबसे बड़ी उम्र के जीवित फर्स्ट क्लास क्रिकेटर हैं और अकेले ऐसे जीवित भारतीय जो देश की आजादी से पहले के टूर्नामेंट पेंटांगुलर्स में खेले- इसे, इस तरह भी कह सकते हैं कि अकेले ऐसे जीवित भारतीय हैं जो पेंटांगुलर्स और रणजी ट्रॉफी दोनों में खेले।
दो और ख़ास मुद्दे हैं उनकी इस जिंदगी के। पहला तो यह कि उन्हें क्रिकेट खेलने इंग्लैंड कौन ले गया था? इसका श्रेय इंग्लैंड के महान बल्लेबाज डेनिस कॉम्पटन को जाता है। भारत में रुस्तम ने जो सबसे यादगार मैच खेला वह 1945 का रणजी फाइनल था। रुस्तम के इसमें स्कोर, बॉम्बे के लिए सीके नायडू की होल्कर टीम के विरुद्ध, 52 और 104 थे। दोनों टीमें काफी मजबूत थीं। होल्कर टीम में डेनिस कॉम्पटन भी थे और दोहरा शतक (249*) बनाया जबकि बॉम्बे टीम के विजय मर्चेंट ने भी दोहरा शतक (278) बनाया।
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इस मैच के बाद रुस्तम आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए क्योंकि तब तक वर्ल्ड वॉर रुक गया था। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ रहे थे और कॉलेज के लिए क्रिकेट भी खेले। कॉम्पटन ने ही मिडिलसेक्स को रुस्तम के बारे में बताया और खेलने का मौका भी दिलाया। इस वर्ल्ड वॉर के दौरान, कॉम्पटन, भारत में सेना की ड्यूटी पर थे।
अब आते हैं दूसरे किस्से पर। जब रुस्तम इंग्लैंड में थे तो ये वे साल थे जब भारत के क्रिकेटर इंग्लिश पिचों पर खेल नहीं पाते थे- 1952 का टूर इसका सबूत है। रुस्तम को तब भी, बेहतर रिकॉर्ड के बावजूद, टेस्ट खेलने नहीं बुलाया। रुस्तम 1953 तक इंग्लैंड में खेले। तब तक बैरिस्टर बन गए थे और एक इंग्लिश महिला से शादी भी कर ली थी। इसके बाद रुस्तम भारत लौट आए। बॉम्बे में, अपनी प्रेक्टिस में इतने व्यस्त हो गए कि क्रिकेट के लिए फुर्सत ही नहीं मिली। इसीलिए सब, धीरे-धीरे उनका नाम भी भूल गए। यहां तक कि ये भी पता न चला कि वे हैं कहां?
रुस्तम, इंग्लैंड में हॉर्नसे क्लब के लिए भी खेले और तीन सीजन में तो 1000 से भी ज्यादा रन बनाए। इसी क्लब के रिकॉर्ड कीपर और इतिहासकार जॉनी ब्रूस ने 2008 में उनसे बॉम्बे में संपर्क की कोशिश की तो पता चला कि वे तो सालों से गायब हैं और किसी को नहीं मालूम कि कहां गए?
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अचानक ही एक अखबार में छपी एक खबर में उनका जिक्र देखा गया। लिखा था- 1984-85 में सिंगापुर के रोटरी क्लब के अध्यक्ष का नाम रुस्तम कूपर था। क्या ये वही रुस्तम थे? सिंगापुर के रोटरी क्लब से संपर्क किया तो जवाब मिला- ये वे रूसी कूपर नहीं जिनकी हॉर्नसे को तलाश है। तब भी क्लब ने एक अच्छा काम ये किया कि उनका फोन नंबर भेज दिया और लिखा कि और जो पूछना है- उन्हीं से पूछ लो। फोन किया तो क्रिकेट के तार जुड़े और पता चला कि ये वही रुस्तम कूपर हैं। उसके बाद रुस्तम लगातार चर्चा में रहे और कोविड के दौरान पुणे में अपनी बेटी के घर पर थे।